Wednesday 20 January 2016

दलित राजनीति के ढोंग और समाज की असंवेदनशीलता के बीच अवश्यंभावी खतरे की आहट| ।




रोहित वेमुला की आत्महत्या के मामले को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है। इसलिए और भी, क्योंकि इस छात्र ने अपनी आत्महत्या के पूर्व जो पत्र लिखा उसमें अपने निलंबन का कहीं कोई जिक्र नहीं है। दार्शनिक भाव से लिखा गया यह पत्र तो यही प्रकट करता है कि वह विरक्ति का भी शिकार था और उसे अपने जीने का कोई उद्देश्य नहीं नजर आ रहा था। चूंकि उसके इस पत्र के आधार पर किसी नतीजे पर पहुंचना मुश्किल है इसलिए इसकी गहन जांच होनी ही चाहिए कि उसने किन परिस्थितियों में आत्महत्या की और क्या इन परिस्थितियों के लिए विश्वविद्यालय प्रशासन उत्तरदायी है? इस जांच के साथ ही यह भी देखा जाना चाहिए कि क्या कारण है कि उच्च शिक्षा के केंद्रों में दलित एवं पिछड़े वर्ग के छात्रों को अन्य छात्रों के मुकाबले कई तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है? इन परेशानियों के चलते इन वर्गों के छात्र या तो पढ़ाई छोडऩे पर विवश होते हैं या फिर आत्महत्या जैसा कदम उठाते हैं। पिछले कुछ वर्षों में हैदराबाद विश्वविद्यालय में ही दलित-पिछड़े वर्ग के कम से कम आठ छात्र आत्महत्या कर चुके हैं। स्पष्ट है कि उच्च शिक्षा केंद्रों के सामाजिक माहौल को सुधारने की जरूरत है। इस जरूरत को पूरा करने के साथ ही यह भी देखा जाना चाहिए कि आखिर विश्वविद्यालयों को राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र क्यों बनने दिया जाए? ऐसे ही मुद्दों को आधार बनाकर ओवैसी जैसे लोगों को अपने अजेंडे को साधने का मौका मिलता है जो दलित-मुस्लिम के गठजोड़ को आधार बनाकर एक और विभाजन का स्वप्न देख रहे हैं।

                  रोहित की आत्म-"हत्या" से एक बार फिर मुल्ला-मार्क्स-मिशनरी गिरोह को हिन्दू धर्म को गरियाने और मोदी को कटघरे में खड़ा करने का मौका मिल गया है। इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना के बाद लोगों की असंवेदनहीनता और स्वार्थपरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि दोनों पक्ष जाति के नाम पर अपनी-अपनी कुंठाएं निकालने में मशगूल हैं। एक पक्ष जहाँ हजार साल से चले आ रहे सामाजिक आरक्षण को नजरअंदाज करते हुए जिसकी वजह से न जाने कितनी प्रतिभाओं की भ्रूण हत्या हुयी, 68 साल पहले दिए गए संवैधानिक आरक्षण का रोना रोटा है वहीँ दूसरा पक्ष स्वयं पर किया गए और किये जा रहे अत्याचारों का हवाला देकर धर्म विरोधी ताकतों के हांथों को कटपुतली बना हुआ है।

हिन्दू धर्म को उद्दात्त विचारों वाला उदार धर्म कहा जाता है तो विशाल ह्रदय दिखाते हुए इसे व्यवहारिक रूप में भी प्रमाणित करने आवश्यकता है, न कि छुद्र और दकियाकनूशी सोंच का परिचय देते हुए हर समाजसुधारक को अंग्रेजों का एजेंट घोषित करके स्वयं को देशभक्त प्रमाणित करने की इतिश्री कर ली जाये। आखिर ये कौन सी विशाल हृदयता और उदारता थी जिसने रक्त दूषित होने का हवाला देकर कश्मीर के राजा गुलाब सिंह के "घरवापसी" यज्ञ को असफल बनाया, स्वामी विवेकानंद द्वारा द्वारा समाज में भेदभाव ख़त्म करने के आग्रह पर उन्हें शूद्र कहकर उनका अपना अपमान करना, राजा राममोहन राय के समाजसुधार कार्यक्रमों पर उन्हें अंग्रेजों का एजेंट घोषित किया करना, वीर सावरकर द्वारा दलितों के मंदिरों प्रवेश के आंदोलन पर पुरोहितों द्वारा उनका विरोध करना, श्री नरेंद्र मोदी द्वारा दलितों को ट्रेनिंग देकर उनके मंदिर में पुजारी नियुक्त करने के निर्णय का विरोध; ऐसे सैकड़ों-हजारों उदाहरण इतिहास और वर्त्तमान में विद्यमान हैं? समाज के प्रबुध्द वर्ग को इस पर मंथन करने की आवश्यकता है आखिर क्या कारण हैं कि जिस अम्बेडकर ने इस्लामिक जिहाद के प्रति दलितों को आगाह किया था और विभाजन के समय हिन्दू-मुस्लिम जनसंख्या की पूर्ण अदला-बदली की मांग की थी, आज उनके कथित अम्बेडकरवादी अनुयायी दलित जो मूल रूप से क्षत्रिय लड़ाकू जातियां थीं, अब मुल्ला-मार्क्स-मिशनरी गिरोह के हाँथों की कठपुतली बन चुके हैं और उनके सिद्धांतों को तार-तार करते हुए भारत विरोधी शक्तियों के हांथों में खेल रहे हैं। 

                  जातिगत राजनीति और मुल्ला तुष्टिकरण का खेल इतना घिनौना हो चुका है कि तथाकथित दलित रहनुमाओं को शांतिप्रिय समुदाय द्वारा पुणे में जलाये गए 17 वर्षीय दलित युवक, हरियाणा में समुदाय विशेष द्वारा दलित लड़की का रेप और मुजफ़्फ़रनगर में दलित नर्स का रेप नहीं दिखता। दलित उद्धार के तराने गाने वाले इन ढोंगी रहनुमाओं को 1947 के बाद जम्मू कश्मीर में मैला धोने के लिए स्थाई नागरिकता के झूठे आश्वासन पर पाकिस्तान से वापस बुलाकर लाये गए बाल्मीकियों की पीड़ा भी नहीं दिखाई देती। छद्म हिंदूवादियों और अम्बेडकरवादियों के इस टकराव में विजय किसी नहीं होगी परंतु कई सदियों से चले आ रहे भारत के दुर्भाग्यपूर्ण इतिहास की तरह पराजय भारत की होगी।

डा. अम्बेडकर ने विभाजन के समय कहा था- "अनुसूचित जाति के लोग , जो पाकिस्तान और हैदराबाद में फंसे हुए हैं, उनसे विनती की कि वे किसी भी उपाय से भारतीय संघ में चले आएं। अनुसूचित जाति के लोगों के लिए, चाहे वो पाकिस्तान में हो या हैदराबाद में, मुसलमानो या मुस्लिम लीग पर भरोसा करना जानलेवा साबित होगा। अनुसूचित जाति के लोगों की आदत पड़ गयी है कि वे मुसलमानो को मित्रता की नज़र से महज़ इस लिए देखते हैं , क्योकि वे हिन्दुओ से घृणा करते हैं, यह धारणा गलत है। पाकिस्तान में उन्हें जबरन मुसलमान बनाया जा रहा है।" गौरतलब है आज पाकिस्तान और बांग्लादेश में इस्लाम के जबड़े में फंसे हुए अधिकतर हिन्दू दलित ही हैं।

आज के तथाकथित दलित नेताओं और पिछड़े वर्ग की राजनीतिक रोटी सेंकने वालों के मुंह तब सिले रहते हैं संवैधानिक नियमों को ताक पर रखकर जामिया और एएमयू जैसे संस्थानों में SC, ST,OBC के खाते की सीटें अल्पसंख़्यकों को दे दी जाती हैं और 85% मुस्लिम जातियां OBC में शामिल होकर उनके हिस्से का अतिक्रमण कर रही हैं। ये ठेकेदार तब भी शांत थे जब कांग्रेस नें 1993 में बौद्धों (जिन्हे अम्बेडकर ने आरक्षण के दायरे से बाहर रखा था) को भी SC आरक्षण के दायरे में शामिल किया था और 2005 में कांग्रेस ने 93वें संविधान संसोधन द्वारा अल्पसंख्यक संस्थानों को SC, ST,OBC आरक्षण के दायरे से मुक्त रखा था, क्या तब दलितों के अधिकारों का हनन नहीं हो रहा था?

क्या हम भविष्य में आने वाले वृहद खतरे को नजरअंदाज करते हुए केवल दूसरों पर दोषारोपण करके स्वयं की जिम्मेदारियों और गलतियों से बच सकते हैं? क्यूकि समस्याओं को केवल ब्लैक एण्ड व्हाइट के नजरिये से देखने में समाधान नहीं है बल्कि उनका तठस्थ भाव से अवलोकन करने की आवश्यकता है।

Monday 11 January 2016

अल्पसंख्यक आयोग और अल्पसंख्यक मंत्रालय के नाम पर तुष्टिकरण का खेल ।




भारत के गृह मंत्रालय के संकल्प दिनांक 12.1.1978 की परिकल्पना के तहत जनता पार्टी सरकार द्वारा अल्पसंख्यक आयोग(जिसका सविधान में कोई वर्णन नहीं है) की स्थापना की गई थी। इस आयोग का मुख्य उद्देश्य था अल्पसंख्यक कहाने वाले वर्गों को क्रमश: एकात्म राष्ट्रीय समाज का अभिन्न अंग बनाना पर, उसने इस दायित्व को निभाने की बजाय अल्पसंख्यकवाद को और गहरा किया, पृथकतावाद की दिशा में धकेला|वर्ष 1984 में कुछ समय के लिए अल्पसंख्यक आयोग को गृह म़ंत्रालय से अलग कर दिया गया था तथा कल्याण मंत्रालय के अंतर्गत नए रूप में गठित किया गया। कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा बिना संसद से कानून बनाये 23 अक्टूबर,1993 को अधिसूचना जारी कर अल्पसंख्यक समुदायों के तौर पर पांच धार्मिक समुदाय यथा मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध तथा पारसी समुदायों को अधिसूचित किया गया था। अल्पसंख्यक आयोग में एक अध्यक्ष, पांच सदस्य और एक सचिव होते हैं जिनका प्रत्येक का वेतन 80 ,000 प्रति महीना है। अन्य लगभग 60 कर्मचारियों का वेतन 20,000 से 70,000 रुपये प्रति महीना होता है। वैसे तो राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की स्थापना के बाद ही अल्पसंख्यक आयोग की प्रासंगिकता समाप्त हो जाती है परन्तु फिर भी तुष्टिकरण की राजनीति के चलते विभिन्न पार्टियों की सरकारों द्वारा इसे प्रश्रय प्रदान किया जा रहा है।


                  2005 में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश श्री आर.एस. लाहोटी की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय बेंच ने एक निर्णय में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग को भंग करने का सुझाव दिया था। बेंच ने अल्पसंख्यक आयोग को सामाजिक परिस्थितियां विकसित करने के तरीकों को बतलाने के लिए कहा था जिससे कि निर्धारित अल्पसंख्यकों की सारणी को कम किया जा सके और साथ ही साथ उन्हें खतम किया जा सके। भाषाई अल्पसंख्यकों के साथ एक राज्य के अंदर अलग- अलग व्यवहार समझा जा सकता है परन्तु यदि वैसा ही व्यवहार धार्मिक आधार पर बढ़ावा दिया जाता है तो देश में जहाँ कि पहले से ही विघटनकारी शक्तियों के कारण वर्गगत और सामाजिक टकराव मौजूद हैं वहां आगे भी धार्मिक विभिन्नता के आधार पर विभाजन की रेखा खिंचेगी। धार्मिक आधार पर अल्पसंख्यक का दर्जा प्रदान करने से समाज अन्य वर्गों में भी सवैधानिक गारंटी के भाग के चलते सामाजिक सुरक्षा और विशेषाधिकारों की चाहत बढ़ेगी। इन विखंडनपूर्ण प्रवत्तियों को बढ़ावा देना भारत के पंथनिरपेक्ष संवैधानिक गणतंत्र के लिए एक गंभीर आघात है। पंथनिरपेक्षता का आशय है कि-"राज्य का अपना कोई धर्म नहीं होगा और राज्य सभी धर्मों और धार्मिक समूहों के साथ उनके व्यक्तिगत धार्मिक अधिकारों, विश्वास और पूजा पद्धतियों के मामलों में बिना हस्तक्षेप करते हुए समान व्यवहार करेगा।"

                राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग जोड़क के बजाय तोड़क की भूमिका अपना रहा है जबकि इसका उद्देश्य भारत के विभिन्न वर्गों में बहुराष्ट्रवादिता की भावना को पनपने से रोंकने वाला होना चाहिए। इन आयोगों की अध्यक्षता व सदस्यता को सत्तारूढ़ दल के अनुग्रह के रूप में देखा जाता है, इसलिए उस दल केस्वार्थों को पूरा करना आयोग का लक्ष्य बन जाता है। संविधान का उद्देश्य था कि ऐसी सामाजिक परिस्थितियां विकसित हों जिससे कि अल्पसंख्यक या बहुसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा करने की आवश्यकता न हो।

              2006 में कांग्रेस सरकार द्वारा अलग से एक अल्पसंख्यक मंत्रालय की स्थापना की गयी थीजिसमें 29 जनवरी 2006 को ए. आर. अंतुले को अल्पसंख्यक मामलों का मंत्री फिर 19 जनवरी 2009 से 28 अक्टूबर 2012 तक सलमान खुर्शीद अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री रहे जिन्होंने एक करोड़ अल्पसंख्यक बच्चों को छात्रवृत्तियां बांटकर मुस्लिम तुष्टिकरण का नया कीर्तिमान स्थापित किया। इसके बाद 16 मई 2014 तक के. रहमान खान अल्पसंख्यक मंत्री रहे। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में 26 मई, 2014 क़ो भाजपा सरकार बनने पर अल्पसंख्यक मंत्रालय को समाप्त करने के बजाय इसे जारी रखते हुए नजमा हेपतुल्ला को अल्पसंख्यक मामलों का मंत्री बनाया गया। फिर 11 नवम्बर 2014 को मुख़्तार अब्बास नकवी के भी अल्पसंख्यक मंत्रालय में राज्यमंत्री बनने पर पहली बार इस मंत्रालय में दो पूर्णकालिक मंत्री हो गए हैं।

              भारत की जनता द्वारा गाढ़ी कमाई से दिए हुए टैक्स के पैसे को अल्पसंख्यक मंत्रालय द्वारा तुष्टिकरण करतेहुए लुटाया जा रहा है और यहाँ तक कि विश्वबैंक तक से 300 करोड़ का कर्ज लेकर अल्पसंख़्यकों के लिए विभिन्न योजनाएं चलाई जा रही हैं। भारत में वोटबैंक की चाहत के चलते रीढ़विहीन नेताओं द्वारा छद्मराष्ट्रवाद का नकाब ओढ़े अनवरत रूप से अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण किया जा रहा है जिसके फलस्वरूप विभिन्न वर्गों के बींच सामाजिक विद्वेष की खाई लगातार बढ़ते हुए सामाजिक परिस्थितियां आज विध्वंशक स्थिति तक पहुँच चुकी हैं।

Friday 6 November 2015

मोदी सरकार के विरुद्ध एक खतरनाक अभियान।

पिछले कई सप्ताह से कुछ घटनाओं को आधार बनाकर प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी की "बढ़ती असहिषुणता" और "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर खतरा" जैसे फैशनेबल मुद्दों पर आलोचना की जा रही है। विरोध करने वाले इस कुनबे में कई लेखक, साहित्यकार और फ़िल्मकार शामिल हैं। यहाँ ये बात गौरतलब है कि सभी विरोध करने वाले बुद्धिजीवियों में कई बातें सामान हैं जैसे कि अफजल गुरु, याकूब मेनन की दया याचिका पर इनके हस्ताक्षर हैं, श्री नरेंद्र मोदी के गुजरात के मुख्यमंत्री रहते उन्हें अमेरिका का वीसा न मिलने की मांग हेतु अमेरिकी राष्ट्रपति को लिखे पत्र में इनके हस्ताक्षर हैं या फिर इन तथाकथित बुद्धिजीवियों के NGO हैं जिन्हे फोर्ड फाउंडेशन या ग्रीनपीस जैसी संस्थाओं से राष्ट्रविरोधी कृत्यों के लिए मोटा चंदा प्राप्त होता है। इन "बुद्धिजीवियों" द्वारा पुरस्कार-सम्मान लौटाए जाने का जो खेल खेला जा रहा है वह पूर्ण रूपेण राजनैतिक और प्रधानमंत्री के प्रति द्वेषपूर्ण है। यह गुट 16 मई  2014 के बाद से ही बेचैन है कि उन्होंने जिस व्यक्ति को लगातार 13 साल तक कोसा वह आज देश का प्रधानमंत्री कैसे बन गया। इन "बुद्धजीवियों" के साथ-साथ सेक्युलर राजनीतिज्ञों, मीडिया के वर्ग और मूडीज जैसी अवयस्क संस्थाओं द्वारा ऐसा दुष्प्रचार किया जा रहा है कि पिछले डेढ़ सालों में भारत में बढ़ती असहिष्णुता के कारण अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न हो रहा है और ये परिस्थितियां यूरोप और और अरब देशों के निवेशकों को आकर्षित करने करने की भारत की संभावनाओं पर असर डालेंगी। 
                  देश में पिछले कुछ महीनों में कई ऐसी घटनाएँ घटीं जो दुर्भाग्यपूर्ण हैं, भले ही वो किसी भी समुदाय से सम्बंधित हों। दादरी की घटना भी उतनी ही निंदनीय ही जितनी कर्नाटक में प्रशांत पुजारी की हत्या की घटना। कुछ महीने पहले दिल्ली के चर्च में पत्थर फेंकने की घटना और पश्चिम बंगाल में नन के साथ रेप की घटना पर सेक्युलर जमात द्वारा अतिसंयोक्तिपूर्ण ढंग से शोर मचाया गया और मीडिया के अधिकांश वर्ग का उन्हें समर्थन मिला। इन घटनाओं के अन्तर्राष्टीयकरण करने की कोई आवश्यकता नहीं है जैसा कि उत्तर प्रदेश के एक मंत्री द्वारा देश में मुसलमानों के हालात पर संयुक्त राष्ट्र महासचिव को पत्र लिखा गया। भारतीय संविधान द्वारा देश में शासन का संघीय ढांचा है जिसके अनुसार कानून व्यवस्था राज्यों का अंग है। दादरी की घटना समाजवादी पार्टी शासित उत्तर प्रदेश में घटित हुयी, कुलबर्गी और प्रशांत पुजारी की हत्या कांग्रेस शासित कर्नाटक में हुयी, दाभोलकर की हत्या महाराष्ट्र में कांग्रेस शासन के दौरान हुयी थी। पानसरे जिनकी हत्या जनवरी 2015 में हुयी, वो अंधश्रद्धा निर्मूलन के साथ-साथ टोल-टैक्स माफियाओं के भी विरुद्ध आंदोलन चला रहे थे, इस प्रकार उनकी हत्या में पूर्ण रूपेण किसी दक्षिणपंथी संगठन को दोषी ठहराना अनुचित है। चूँकि अधिकांश घटनाएँ गैर-भाजपा शासित राज्यों में घटित हुयी थीं तो तथाकथित बुद्धिजीवियों द्वारा उन राज्य सरकारों पर सवाल न उठाकर उल्टा केंद्र सरकार पर असहिष्णु होने का आरोप लगा दिया गया परन्तु भाजपा शासित राज्य हरियाणा में दो दलित बालकों के आग में जिन्दा जलने पर सेक्युलर ब्रिगेड को अचानक याद आ गया कि कानून व्यवस्था राज्य की जिम्मेदारी है और बिना जाँच रिपोर्ट का इंतजार किये हरियाणा सरकार को कटघरे में खड़ा करते हुए सवर्ण समुदाय को दोषी ठहराकर समाज में जातिगत द्वेष फैलाया गया। फॉरेंसिक रिपोर्ट आने पर यह बात प्रमाणित हुयी कि दलित परिवार के घर में आग अंदर से लगी थी परन्तु तब तक मीडिया और सेक्युलर मंडली समाज में वैमनस्तता फ़ैलाने के अपने उद्देश्य में सफल हो चुकी थी। 
                  "बुद्धिजीवियों" और वामपंथ की परिभाषा के अनुसार- अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता केवल उसी को है जो वामपंथी-सेक्युलर अथवा मुल्लावाद की बात करे, यदि हिन्दुओं ने प्रतिकार किया तो उसे असहिष्णुता का नाम दे दिया जायेगा। वामपंथ के अनुसार स्वस्थ संवाद केवल तभी तक संभव है जब तक हिन्दू संस्कृति, देवी-देवताओं,परम्पराओं को गाली देने की छूट हो, अरबी-फ़ारसी की बात करना सेक्युलरिज्म है परन्तु संस्कृत भाषा की पैरोकारी घोर सांप्रदायिकता फैलाना है।
                   सेक्युलर वामपंथियों का यह पैटर्न नया नहीं है। कथित असहिष्णु नरेंद्र मोदी को विशाल ह्रदय वाले अटल बिहारी बाजपेई के खिलाफ खड़ा करना एक फैशन बन गया है। जिन लोगों की याददाश्त अच्छी है उन्हें याद होगा कि जो ताकतें आज यह दुष्प्रचार कर रही हैं कि हिन्दू फांसीवाद आने वाला है वही अटल बिहारी बाजपेई के शासनकाल में ऑस्ट्रेलियाई मिशनरी व आदिवासियों के धर्मान्तरण कार्य में लिप्त ग्राहम स्टेंस की उड़ीसा में  हत्या करने वाले लोगों को कथित रूप से प्रोत्साहित करने के लिए बाजपेई के पीछे पड़ी थीं। तब भी यही कहा गया था कि किसी भी ऐसी गठबंधन की सरकार जिसमें जिसमें भाजपा के पास नेतृत्व हो, में अल्पसंख्यक सुरक्षित नहीं रहेंगे। यह आज के भारत  दोहराया जा रहा है। हिन्दू असहिष्णुता का आरोप एक बड़ी योजना का हिस्सा है। इस योजना का लक्ष्य यह साबित करना है कि मोदी सरकार का एक छिपा हुआ एजेंडा है। "बुद्धिजीवियों" के इस अभियान का उद्देश्य अंतराष्ट्रीय जगत में प्रधानमंत्री मोदी द्वारा बढ़ाई गयी भारत की साख को गिराना और भारत के सोशल रिकॉर्ड पर दाग लगाना भी है। सेक्युलर जमात द्वारा प्रारम्भ की गयी ये मनोवैज्ञानिक लड़ाई इस सोंच पर आधारित है कि मोदी सरकार की छवि ख़राब करने के लिए सब कुछ किया जाना चाहिए, इसमें प्रत्यक्ष रूप से कांग्रेस और उसके बामपंथी स्लीपर सेल का हाँथ है जिसे विगत 65 वर्षों के कांग्रेस शासन के दौरान पल्लवित-पोषित किया गया। स्वतंत्रता के बाद छः दशकों तक अधिकांश रूप से कांग्रेस और विशेषतः नेहरू-गांधी परिवार का शासन देश पर रहा। प्रशासनिक क्षेत्र में जहाँ कांग्रेस का नियंत्रण रहा और बौद्धिक,अकादमिक प्रतिष्ठानों पर नेहरू के समय से ही वामपंथियों को नियंत्रण प्रदान किया गया जिसके एवज में वामपंथियों द्वारा कांग्रेस का निर्विरोध समर्थन होता रहा। वामपंथियों को चुनाव में कभी पुरे देश में समर्थन नहीं मिला परन्तु कला, संस्कृति और अकादमिक संस्थानों में उन्हें पक्की जगह मिल गयी। मोदी सरकार के महीने बीतने के साथ-साथ कांग्रेस और वामपंथी शनैः-शनैः अपनी आशा खोते जा रहे हैं और उन्हें अपना भविष्य अंधकारपूर्ण नजर आ रहा है। जिसके परिणामस्वरूप ये अपनी गन्दी हरकतों से देश की जनता द्वारा प्रचंड बहुमत से चुनी हुयी  सरकार को गिराने और अंतराष्ट्रीय स्तर पर बदनाम करने का षड्यंत्र कर रहे हैं। 1998 से 2004 के बींच अटल बिहारी बाजपेई के नेतृत्व में रही भाजपा सरकार के समय भी इसी प्रकार की परिस्थितियां उत्पन्न की गयी थीं जब मध्य प्रदेश के झबुआ जिले में तीन ईसाई ननों के रेप के मामले में बाजपेई सरकार की छवि को प्रभावित किया गया था। परन्तु बाद में हुयी जाँच से पता चला कि ये घटना 24 पियक्कड़ अपराधियों द्वारा अंजाम दी गयी थी जिसमें से 12 ईसाई और 12 भील जनजातीय थे। नरेंद्र मोदी जी के प्रधानमंत्री रहते जो कुछ हो रहा है वह अटल बिहारी बाजपेई के सत्ता में होने के समय हुयी घटनाओं का पुनर्प्रदर्शन है। मीडिया और सेक्युलर समुदाय मोदी जी के विरोध में वही कर रहा है जो उन्होंने 15 वर्ष पूर्व बाजपेई जी के समय में किया था। 
                 आज भारत में "असहिष्णुता" का हवाला देकर पुरस्कार लौटाने वाले साहित्यकारों, लेखकों व कलाकारों ने 1975 में इंदिरा गांधी द्वारा लगाये गए आपातकाल का समर्थन किया था। अधिकांश सेक्युलर नेता, मीडिया और बुद्धिजीवी भी उनके साथ थे। बामपंथी धड़े के "प्रगतिशील पत्रकार संघ" नें आपातकाल का समर्थन किया था। आपात्कालीन परिस्थितियों में 34 बुद्धिजीवियों ने साहित्य अकादमी पुरस्कारों के सम्मान को स्वीकार किया था उनमें से दो- सर्वपल्ली गोपाल और भीष्म साहनी धर्मनिरपेक्षता की मूर्ति थे। गुलाम नबी ख्याल जिन्हे आपातकाल के समय पुरस्कार मिला था अब उसे फासिज्म के उत्पन्न होने के विरोध में लौटाया है। पिछले महीने ईरानी फिल्म निर्देशक माजिद मजिदी, पैगम्बर मुहम्मद पर अपनी एक फिल्म के प्रचार के लिए भारत आये थे। इस फिल्म में ए आर रहमान नें संगीत दिया है लेकिन दोनों का समूचे मौलवियों और इस्लाम के ठेकेदारों द्वारा प्रतिकार किया गया तब किसी ने भी किसी कोने से इस असहिष्णु कृत्य के विरोध में आवाज नहीं सुनी। तब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की झंडाबरदार यह सेक्युलर मण्डली कहाँ थी? 
                 संप्रग शासन के समय ईसाई धर्म प्रचारकों के कार्यों में पूर्ण छूट थी। दक्षिण भारत में बड़े पैमाने पर ईसाई मिशनरियों द्वारा आदिवासी हिन्दुओं का धर्मान्तरण किया गया। इसके फलवरूप सामाजिक तनाव फैलाव और लोगों के बीच अशांति फैली। मोदी सरकार द्वारा विदेशी सहायता प्राप्त करने वाले लगभग 15,000 NGO के FCRA लाइसेंस रद्द करने और विदेशी सहायता पर्याप्त करने पर कड़ी निगरानी करने पर सेक्युलर मिडिया, NGO गिरोह में बेचैनी है और वे इसका बदला सरकार के विरुद्ध असहिष्णुता का मिथ्या दुष्प्रचार करके ले रहे हैं। "बुद्धिजीवियों" के मिथ्या दुष्प्रचार का कई अन्य साहित्यकारों, लेखकों और कलाकारों द्वारा विरोध भी किया जा रहा है। भारत जैसे विशाल देश में जहाँ हर दिन कहीं न कहीं कोई घटना घटित  होती रहती है और हर एक घटना पर प्रधानमंत्री को दोषी ठहराकर उनकी प्रतिक्रिया की मांग करना अनुचित है। सेक्युलर जमात द्वारा प्रधानमंत्री का एकपक्षीय विरोध करके अपने ही द्वेषपूर्ण एजेंडे को उघाड़ दिया गया है जिसकी कलई दिन पर दिन देश की जनता के सामने खुल रही है।       
                  

Friday 9 October 2015

भारत में अलगाववादी प्रवत्ति की पृष्ठभूमि का पुनरावलोकन|


उत्तर प्रदेश के दादरी के पास बिसहाड़ा गांव में कथित रूप से गाय की हत्या के बाद उपजे असंतोष के फलस्वरूप ग्रामीणों ने समुदाय विशेष के एक पिता-पुत्र की पिटाई कर दी जिसमें पिता की मृत्यु हो गयी और पुत्र गंभीर रूप से घायल हो गया। भारत में गौहत्या का पुराना इतिहास रहा है । मुगलकाल से ही मुस्लिम शासकों द्वारा हिन्दुओं को नीचा दिखने और उनपर बलपूर्वक अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए हथियार के तौर पर गौहत्या का उपयोग होता रहा है, जबकि धार्मिक दृष्टि से इस्लामिक पुस्तकों में कहीं पर भी गाय खाने का जिक्र नहीं हैं। वर्त्तमान में भारत के मुस्लमान चूँकि स्वयं को मुस्लिम आक्रमणकारियों के असली वंशज और सच्चा प्रतिनिधि मानते हैं इसलिए वे उनके अनैतिक कार्यकलापों को भी दोहराते हुए बहुसंख्यकों को नीचा दिखाने का प्रयास करना अपना परम कर्तव्य समझते हैं। जिन्हे आजकल 'खाने के अधिकार' या 'खाने की स्वतंत्रता' के नाम पर कुछ छद्मसेक्युलरिस्टों और घोर हिन्दू विरोधी वामपंथियों का प्रखर समर्थन मिलता है।इन सेक्युलरिस्टों और वामपंथियों का मुख्य उद्देश्य येन-केन-प्रकारेण हिन्दू संस्कृति, भारतीय मान्यताओं व परम्पराओं पर कुठाराघात करके विदेशी आयातित संस्कृति को ऊँचा दिखाना होता है। 

           1857 के प्रथम स्वातंत्र्य समर के समय ही भारत के मुसलमानों में अपने पूर्वजों के इस्लामिक शासन के स्वर्णिम अतीत को पुनर्स्थापित करने की ललक रही है और वे उसी शासनकाल के आधार पर स्वयं को हिन्दुओं से श्रेष्ठ समझने का प्रयास करते हैं। मुस्लिमों की इसी प्रवत्ति का फायदा अंग्रेजों ने उठाया और उनके बीच अलगाववाद की आग को हवा दी। इसी अलगाववाद की प्रवत्ति के चलते और अपनी इस्लामिक विरासत को समृद्ध करने और आगे बढ़ाने की महत्वाकांक्षा के फलस्वरूप सन 1877 में सर सैयद अहमद खान ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना की जिसने पाकिस्तान आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाई थी, फिर उसी कड़ी में आगे 1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना की गयी। 1885 में इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना के बाद सर सैयद ने मुसलमानों को आदेश दिया कि वे कांग्रेस में सम्मिलित हों। अपने इस आदेश के समर्थन में उन्होंने 28 दिसंबर 1887 को लखनऊ में, 14 मार्च 1888 को मेरठ में दिए भाषण में कहा- "भारत में एक नहीं, दो राष्ट्र हैं, जो इंग्लैंड और स्काटलैंड के समान घुल मिलकर एक नहीं हुए हैं। अगर अंग्रेज गये तो सत्ता की खाली कुर्सी पर कौन बैठेगा? दोनों तो नहीं बैठ सकते। कौन बैठे इसका फैसला कैसे होगा?"पाकिस्तानी विश्वविद्यालयों में मान्यता प्राप्त "ए शार्ट हिस्ट्री आफ पाकिस्तान" के खंड 4 के नौवे अध्याय में मुस्लिम राष्ट्रवाद का आरंभ बिन्दु 1857 के युद्ध में असफलता की प्रतिक्रिया को बताया गया है। इस अध्याय में बहुत विस्तार से बताया गया है कि भावी खतरे को सबसे पहले सैयद अहमद खान ने पहचाना। मुसलमानों के प्रति ब्रिाटिश आक्रोश को कम करने और ब्रिाटिश सरकार व मुसलमानों के बीच सहयोग का पुल बनाने के लिए उन्होंने योजनाबद्ध प्रयास आरंभ किया। ब्रिाटिश आक्रोश को कम करने के लिए उन्होंने 1858 में "रिसाला अस बाब-ए-बगावत ए हिंद" (भारतीय विद्रोह की कारण मीमांसा) शीर्षक पुस्तिका लिखी, जिसमें उन्होंने प्रमाणित करने की कोशिश की कि इस क्रांति के लिए मुसलामन नहीं, हिन्दू जिम्मेदार थे। सर सैयद की इसी विचारधारा का प्रवाह सैयद से जिन्ना तक निरंतर बहता रहा। यही विचारधारा 16 अगस्त 1945 को कोलकाता की खूनी "सीधी कार्रवाई" और 5 मार्च 1947 को रावलपिंडी के नरमेध के रूप में हमारे सामने आई।

              अलगाववाद की प्रवत्ति और द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत को मानने वालों के चलते धर्म आधार पर जिन्ना के नेतृत्व में अलग देश पाकिस्तान का निर्माण हुआ काफी संख्या में मुसलमानों ने भारत में ही रहना स्वीकार किया। कई दशकों से संविधान द्वारा प्रदत्त विशेष अधिकारों का उपयोग करने के बाद भी उन्होंने परष्पर भाईचारा के सिद्धांत को मानने से इंकार कर दिया है जो कि संविधान की प्रस्तावना का भाग है। मुसलमान किसी भी भौगोलिक राष्ट्रीयता को नहीं मानता और वे यह स्वीकार करते हैं हैं कि वे मुस्लिम पहले हैं और भारतीय बाद में। भारत के संविधान निर्माताओं द्वारा भारत को धर्मनिरपेक्ष राज्य बनाने और सभी धर्मों को सामान अधिकार देने के बाद अल्पसंख्यकों को कुछ विशेष अधिकार भी दिए गए। 1969 में मुस्लिम लीग के दबाव में केरल में मालापुरम के मुस्लिम बहुल इलाकों को कुछ अन्य जिलों की भौगोलिक सीमाओं का पुनर्गठन कर मज़हबी आधार पर एक नया जिला बनाया गया।

               स्वतंत्रता के बाद के वर्षों में देश में अल्पसंख्यकवाद के नाम पर एक मुस्लिम वोटबैंक का निर्माण हुआ जिसके प्रलोभन में समस्त राजनीतिक पार्टियों और राजनेताओं ने अपने चुनावी घोषणापत्रों और योजनाओं को उनके अनुरूप बनाया। मोरारजी देसाई के शासनकाल में 'अल्पसंख्यक आयोग' का निर्माण हुआ और 17 मई 1992 को कांग्रेस शासन के दौरान संसद ने राष्ट्रीय अल्पसंख्यक एक्ट पारित करके इसे संवैधानिक रूप दे दिया गया। अल्पसंख्यक वोटबैंक की राजनीति के चलते 1991 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस और जनता दल नें अल्पसंख़्यकों के लिए सरकारी सेवाओं और सशस्त्र सेनाओं में आरक्षण का वादा किया। मुस्लिमों के लिए 9 प्रतिशत आरक्षण की बात को 2004 चुनाओं में अटल बिहारी बाजपेई द्वारा उठाया गया और उसके एवज में बुखारी ने उनका समर्थन करने की घोषणा की।
         
                   संविधान के नीति निर्देशक तहत अनुच्छेद 44 में वर्णित 'समान नागरिक संहिता' के प्रस्ताव का केवल मुस्लिम ही नहीं अपितु इसे भी विरोध करते हैं और पारिवारिक मामलों हेतु क्रमशः शरीयत आधारित 'मुस्लिम पर्सनल कानून' और 'कैनन ला' का अनुपालन करते हैं। अनुच्छेद 44 का उद्देश्य देश में भाईचारा, एकता और अखंडता की स्थापना करना है जो कि न केवल संविधान की प्रस्तावना में प्रस्तावना में प्रतिस्थापित है बल्कि अनुच्छेद 51(A ) के तहत मूल कर्तव्यों में भी इनका समर्थन किया गया है। अनुच्छेद 44 में वर्णित 'समान नागरिक संहिता' का किसी भी व्यक्ति द्वारा विरोध अनुच्छेद 51(A) में वर्णित नागरिकों के मूल कर्तव्यों का उल्लंघन हैं और यदि सरकार भी ऐसा आचरण करती है तो वह भी संविधान के उल्लंघन की जिम्मेदार है।
             
               वोटबैंक की राजनीति के चलते विभिन्न पार्टियों द्वारा सेक्युलरिज्म के नाम पर मुस्लिमों के तुष्टिकरण की नीति अपनाई गयी है फिर भी उनकी मांगें सुरसा के मुख की तरह लगातार बढ़ती ही जा रही हैं। 1955 में नेहरू द्वारा केवल हिन्दुओं के पारिवारिक और उत्तराधिकार मामलों के लिए 'हिन्दू कोड बिल' का निर्माण किया गया परन्तु डा. अम्बेडकर जी की 'समान नागरिक संहिता' की मांग को नेहरू द्वारा यह कहकर ठुकरा दिया गया कि अभी इसे लागू करने का उचित समय नहीं आया है। नेहरू की परिपाटी पर चलते हुए राजीव गांधी नें 'शाहबानो' के ग़ुजराभत्ता मामले में सर्वोच्च न्यायलय के फैसले को पलटकर देश के एक संप्रदाय की अलगाववादी प्रवत्ति के सामने घुटने टेक दिए गए और उसे संरक्षण प्रदान किया गया। स्वतन्त्र भारत के इतिहास में इस प्रकरण के बाद पहली बार अल्पसंख्यक और बहुसंख्यकों के लिए राज्य द्वारा अपनाये जा रहे अलग-अलग रवैये के फलस्वरूप उनके बीच की खाई और चौड़ी हो गयी और सेक्युलरिज्म ने नाम पर अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण करने की नीतियों को प्रश्रय मिला। इसी कड़ी में नए आयाम जोड़ते हुए कई सरकारों ने बहुसंख्यकों की भावनाओं का अनादर करते हुए ऐसे कई फैसले लिए गए जिन्होंने अल्पसंख्यकों की उन्मादी विचारधारा को खाद-पानी प्रदान किया। 2002 में टीएमए पाई फाउंडेशन बनाम यूनियन ऑफ़ इन्डिया के मामले में सर्वोच्च न्यायलय नें बहुसंख्यकों को भी अनुछेद 19(1)(g) में प्रदत्त व्यवसाय के अधिकार के तहत शिक्षण संस्थानों की स्थापना और सञ्चालन का अधिकार दे दिया परन्तु उसके बाद 2005 में यूपीए सरकार ने 93वां संविधान संसोधन करके देश के सभी शिक्षण संस्थानों में हस्तक्षेप और उनके बारे में नियम बनाने व सामाजिक ,आर्थिक रूप से पिछड़ों के लिए आरक्षण लागू करने का अधिकार प्राप्त कर लिया और अल्पसंख्यक शिक्षण शिक्षा संस्थानों चाहे वो राज्य द्वारा वित्तपोषित भी हों उन्हे आरक्षण के दायरे से बाहर रखा गया जो संविधान में प्रदत्त नागरिकों के मूल अधिकार का प्रत्यक्ष उल्लंघन है।

                 भारत में छह सौ सालों के इस्लामिक शासन और स्वतंत्रता के बाद किये गए तुष्टिकरण के फलस्वरूप मुस्लिमों के मन ऐसी विघटनकारी प्रवत्ति विकसित हो चुकी है जो कि बहुसंख्यकों के साथ किसी भी प्रकार का सामंजस्य बिठा पाने की स्थिति में है। अगर कही पर भी मुस्लिमों द्वारा भाईचारा या सहिष्णुणता का प्रदर्शन होता है तो या तो उनकी व्यापारिक मजबूरियां होती हैं या उनकी संख्या दस फीसदी से कम होती है। अल्पसंख्यकों द्वारा भारत को बिना पितृभूमि और पुण्यभूमि माने अलगाववाद की प्रवत्ति का नाश होना असंभव है। जब तक वोटबैंक की राजनीति के चलते अल्पसंख्यक समुदाय के तुष्टीकरण का कार्य चलेगा तब तक भारतीय समाज में स्थाई शांति, स्थिरता और बंधुत्व की भावना का पनपना मुश्किल है। 

Monday 24 August 2015

संविधान का अनुच्छेद 30- हिन्दुओं के साथ का प्रत्यक्ष भेदभाव।

एक संदिग्ध अवधारणा- 'अल्पसंख्यकों द्वारा शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और प्रबंधन', जिसका अनुमोदन विभाजन के समय 'चिंतित' मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों के लिये सद्भावपूर्ण द्वष्टि से किया गया था, उसने आज भारत में ऐसी गहरी जड़ें जमा ली हैं कि ये हिन्दुओं के साथ असमानता और भेदभाव का मुख्य का कारण  बन गया है। 
सविधान का अनुच्छेद-30 दो प्रकार के अल्पसंख्यकों को  परिभाषित करता है- भाषाई और धार्मिक। सर्वोच्च न्यायलय के निर्णय के अनुसार 'अल्पसंख्यक कौन है' इसका निर्णय लिए राज्य भौगोलिक इकाई होगा(न कि अखिल भारत) जिसकी जनसंख्या के आधार पर वहां के अल्पसंख्यकों व बहुसंख्यकों का निर्धारण होगा। इनके बीच सविधान और न्यायलय नें ऐसे दुराग्रही परिणाम सुनिश्चित किये कि अब प्रत्येक शैक्षणिक संस्थान 'अल्पसंख्यक संस्थान' का दर्जा चाहता है जिससे कि वह राज्य के हस्ताक्षेप से कुछ हद तक स्वाययत्तता पा सके, जिसके कुछ असंगत व विकृत परिणाम इस प्रकार हैं-

1. यदि आप तेलगू संस्थान हैं तो आपके पास आंध्र प्रदेश में  स्वाययत्तता नहीं है तो राज्य के हस्तक्षेप से बचने के लिए सर्वश्रेष्ठ रास्ता है कि इसे दिल्ली या गुजरात में स्थापित करें। गुजरती संस्थान महाराष्ट्र में और मराठी संस्थान कर्नाटक में अधिक खुश रहेगा। संक्षेप में, एक सही अवस्थिति के साथ कोई भी संस्थान स्वयं को अल्पसंक्यक घोषित कर सकता है, इसी ने वास्तव में कानून का मज़ाक बना दिया है।
2. अल्पसंख़्यकों को बिना किसी सुनिश्चित  संख्याबल के निर्देश के निर्धारित किया गया है और संविधान  में कहीं पर भी परिभाषित नहीं  किया गया है। क्या पारसी अल्पसंख्यक हैं? निश्चित रूप से क्यूंकि उनकी संख्या कुछ हजार में हैं। क्या मुस्लिम अल्पसंख्यक हैं? जबकि देश में उनकी संख्या 25 करोड़ के आसपास है जो कि भारत को विश्व में दूसरा सबसे अधिक मुस्लिम आबादी वाला देश बनाता है? मौलाना अबुल कलाम आज़ाद मुस्लिमों को अल्पसंख्यक नहीं मानते थे, उन्होंने मुस्लिमों को भारत का दूसरा बहुसंक्यक कहा था। 

3. चूँकि राज्य अल्पसंख्यक संस्थानों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता परन्तु बहुसंक्यक संस्थानों में कर सकता है, जिसके परिणामस्वरूप सभी बहुसंख्यक संस्थान राजनेताओं और नौकरशाहों का आसान शिकार बन गए हैं। इस प्रकार से कुछ दक्षिणी राज्यों में मन्दिरों का धन राज्य के खजाने के साथ मिला दिया गया है, जबकि वह धन राज्य से सम्बद्ध नहीं है। 
           भारत का सबसे धनी  मंदिर 'तिरुमाला  देवस्थानम' जिसके पास दस हजार करोड़ रुपये नकद है और सालाना 600 करोड़ रुपये का चढ़ावा आता है, इसका संचालन श्रद्धालुओं द्वारा नहीं बल्कि आंध्र सरकार के मंत्रियों और नौकरशाहों द्वारा किया जाता है। 
अनुच्छेद 30 का उद्देश्य अब लोगों द्वारा अपनी इच्छा के संस्थानों के प्रबंधन करने के अधिकार से होकर प्रायः बहुसंख्य्कों द्वारा वही विकल्प अपनाने से रोकना हो गया है। 
2002 में सर्वोच्च न्यायलय की 11 जजों के बेंच  द्वारा टीएमए पाई फाउंडेशन मामले में अनुच्छेद 19-1(g) के तहत  गैर-अल्पसंख़्यक शैक्षणिक संस्थानों को भी अल्पसंख़्यक संस्थानों के सामान अधिकार दिए गए परन्तु कांग्रेस सरकार द्वारा 2005 में किये गए 93वें संविधान संसोधन द्वारा एक अनुच्छेद 15(5) जोड़कर अल्पसंख़्यक संस्थानों को राज्य के किसी भी प्रकार के हस्तक्षेप से बाहर कर दिया गया। 
अनुच्छेद -30 के अनुसार- "अल्पसंख्यकों द्वारा शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना व प्रबंधन का अधिकार"
(i) सभी अल्पसंख्यक(धार्मिक व भाषाई) को अपनी पसंद के शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना व प्रबंधन का अधिकार होगा। 
(ii) राज्य शैक्षणिक संस्थानों को वित्तीय सहायता देने में इस आधार पर भेदभाव नहीं करेगा कि इसका प्रबंधन अल्पसंख़्यकों द्वारा किया जा रहा है, चाहे वो धार्मिक हो या भाषाई। 
        अनुच्छेद 30 का वास्तविक उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव न हो और न ही उन्हें समान व्यवहार से वंचित किया जाये। परन्तु व्यवहारिक रूप से इसका तात्पर्य यह हो गया है कि गैर-अल्पसंख्यकों  को अपने हिसाब 'शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना  प्रबंधन' के अधिकार से वंचित किया जा सकता है। 
         अनुच्छेद 30 और इससे सम्बंधित न्यायालयों के निर्णय जैसे कि सर्वोच्च न्यायलय द्वारा बिना सरकारी सहायता प्राप्त अल्पसंख्यक संस्थानों में  'शिक्षा का अधिकार' के तहत गरीब बच्चों को 25 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने से छूट  प्रदान की गयी। जिसे निरस्त करने या फिर से लिखने की आवश्यकता है।  2014 में मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा फेडरेशन कैथोलिक फेथफुल बनाम तमिल राज्य के मामले में सरकारी सहायता प्राप्त अल्पसंख्यक संस्थान को भी आरक्षण से छूट प्रदान की गयी। 
           अनुच्छेद 30 को इस सामान्य का कारण  से निरस्त किया जा सकता है की अल्पसंख़्यकों द्वारा संस्थानों की स्थापना का अधिकार 'मानवाधिकार' और 'नागरिक अधिकार' के अंतर्गत पहले से ही समाहित हैं। चूँकि कोई भी भारतीय नागरिक कानून के दायरे में शैक्षणिक संस्थान स्थापित कर सकता है। स्वायत्तता का परिमाण राज्य द्वारा सहायता की मात्र पर निर्भर होना चाहिए।  
        यह भी महत्वपूर्ण ध्यान देने वाली बात है कि हिंदुत्व रूढ़िवादी नहीं है जिसे किसी परंपरागत धार्मिक सन्दर्भ की परिभाषा में बांधा जाये। भाषाई रूप से हिंदी भारत में सबसे ज्यादा बोली जाती है परन्तु अखिल भारत स्तर पर इसका भी बहुमत नहीं है। सांस्कृतिक दृष्टि से हम अल्पसंख़्यकों और विविधताओं वाले राष्ट्र हैं, हमें अल्पसंख़्यक अधिकारों से नहीं बल्कि सार्वभौमिक अधिकारों से संचालित होना चाहिए। 

Wednesday 13 May 2015

अल्पसंख्यकवाद की राजनीति के कारण भारत के विखंडन का प्रयास।

अल्पसंख्यक शब्द का अर्थ होता है कम संख्या में और संयुक्त राष्ट्र की परिभाषा भी कुल जनसँख्या के 10 फीसदी वाले समुदाय को ही अल्पसंख्यक मानती है, लेकिन क्या भारतीय समाज के धार्मिक ताने-बाने में मुस्लिम समुदाय के लिए यह शब्द सटीक बैठता है? क्या वाकई भारत में जहां मुस्लिमों और अन्य धर्म के लोगों को अल्पसंख्यक माना जाता है, उन्हें अल्पसंख्यक कहना उचित है?
अल्‍पसंख्‍यक’ शब्‍द की परिभाषा हमारे  संविधान में नही हैं बेशक इसका विवरण संविधान की धाराओं में शामिल है पूर्व यूपीए नीत केंद्र सरकार ने यह स्वीकारोक्ति संसद में एक लिखित उत्तर में की हुई है।  तत्कालीन अल्‍पसंख्‍यक कार्य मंत्रालय राज्‍य मंत्री श्री निनॉन्‍ग ईरिंग ने एक प्रश्‍न के लिखित उत्‍तर में बताया था कि भारतीय संविधान में ‘अल्‍पसंख्‍यक’ शब्‍द का विवरण धारा 29 से लेकर 30 तक और 350ए से लेकर 350बी तक शामिल है। इसकी परिभाषा कहीं भी नहीं दी गई है। भारतीय संविधान की धारा 29 में ‘अल्‍पसंख्‍यक’ शब्‍द को इसके सीमांतर शीर्षक में शामिल तो किया गया किंतु इसमें बताया गया है कि यह नागरिकों का वह हिस्‍सा है, जिसकी भाषा, लिपि अथवा संस्‍कृति भिन्‍न हो यह एक पूरा समुदाय हो सकता है, जिसे सामान्‍य रूप से एक अल्‍पसंख्‍यक अथवा एक बहुसंख्‍यक समुदाय के एक समूह के रूप में देखा जाता है।
भारतीय संविधान की धारा-30 में विशेष तौर पर अल्‍पसंख्‍यकों की दो श्रेणियों – धार्मिक और भाषायी, का उल्‍लेख किया गया है। शेष दो धाराएं – 350ए और 350बी केवल भाषायी अल्‍पसंख्‍यकों से ही संबंधित हैं।संविधान निर्माताओं को अल्पसंख्यक आयोग गठन की जरूरत नहीं महसूस हुई राजनीति को इसकी जरूरत थी, सो सरकार ने 1992 में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग का कानून पारित करवाया ,इस कानून में भी अल्पसंख्यक की मजेदार परिभाषा है-
अल्पसंख्यक वह समुदाय है जो केंद्रीय सरकार अधिसूचित करे.
अर्थात अल्पसंख्यक घोषित करने का अधिकार सरकार ने खुद अपने हाथ में ले लिया।  किसी जाति समूह को अनुसूचित जाति या जनजाति घोषित करने की विधि (अनु. 341 व 342) बड़ी जटिल है यह काम संसद ही कर सकती है लेकिन अल्पसंख्यक घोषित करने का काम सरकारी दफ्तर से ही होने का प्रावधान है। 
भारत सरकार द्वारा 23 अक्टूबर 1993 को अधिसूचना जारी कर अल्पसंख्यक समुदायों के तौर पर पांच धार्मिक समुदाय यथा मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध तथा पारसी समुदायों को अधिसूचित किया गया था।  2001 की जनगणना के अनुसार देश की जनसंख्या में पांच धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों का प्रतिशत 18.42 है फिर अचानक 27 जनवरी 2014 को केंद्र सरकार ने राष्‍ट्रीय अल्‍पसंख्‍यक आयोग कानून 1992 की धारा 2 के अनुच्‍छेद (ग) के अंतर्गत प्राप्‍त अधि‍कारों का उपयोग करते हुए, जैन समुदाय को भी अल्‍पसंख्‍यक समुदाय के रूप में अधि‍सूचि‍त कर दि‍या।
वस्तुत: वोट और दल की जिस ब्रिटिश राजनीतिक प्रणाली को हमने अपनाया है, उसमें से भिन्न परिणाम निकलना ही नहीं था।  उस प्रणाली में से निकले राजनीतिक नेतृत्व का विघटनवाद और पृथकतावाद में निहित स्वार्थ पैदा हो गया है, उसी स्वार्थ को सामने रखकर सब संस्थाओं का निर्माण किया जा रहा है, उदाहरण के लिए राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग नामक संस्था का विचार कीजिए इस आयोग की स्थापना जनता पार्टी के शासनकाल (1977-79) में हुई थी।  इस आयोग का मुख्य उद्देश्य था अल्पसंख्यक कहाने वाले वर्गों को क्रमश: एकात्म राष्ट्रीय समाज का अभिन्न अंग बनाना, पर उसने इस दायित्व को निभाने की बजाय अल्पसंख्यकवाद को और गहरा किया और  पृथकतावाद की दिशा में धकेला।  यही कारण है कि सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश श्री आर.एस. लाहोटी ने एक निर्णय में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग को भंग करने का सुझाव दिया था और वैसे भी राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की स्थापना के बाद ही अल्पसंख्यक आयोग की संवैधानिक व कानूनी प्रासंगिकता ही समाप्त हो जाती है। हमारे संविधान के अनुसार देश की कुल जनसंख्या के 5 प्रतिशत से अधिक वाले समुदाय या वर्ग को अल्पसंख्यक नहीं कहा जा सकता तो किस आधार पर हमारी सरकारें मुस्लिमों को अल्पसंख्यक मान उन्हें विशेष रियायत देती हैं?
यह मुद्दा सिर्फ मुस्लिम के साथ ही नहीं बौद्ध, ईसाई पर भी लागू होता है जिन्हें सरकार अल्पसंख्यक मानती है क्योंकि बौद्ध तो हिंदू धर्म अनुसार जातिप्रथा ढो रहे हैं और मनुवाद के नाम पर ब्राह्मणों, सवर्णों को विदेशी कह खुद को मूलनिवासी कह रहे हैं वहीं नेपाल खुद को बुद्ध की जन्मस्थली कह रहा है तो हम अब करें क्या?
मुसलमान, ईसाई, बौद्ध ये सारे मूलतः विदेशी लोग संविधान की नहीं बल्कि हमारी कमजोरियों का भी भरपूर फायदे ले रहे हैं।  यूँ 100 रू. का स्टांप पर शपथ घोषणापत्र में पूर्व धर्म हिंदू और हिंदू नाम ही लिखवा कर, लिखने व काम लेने की इजाजतें देकर न्यायालय, व्यवस्था और संविधान इन बौद्धों और विशेषकर 'नवबौद्धों' को पूर्ण रूप से अल्पसंख्यक भी नहीं बनने देता है और ना बहुसंख्यक ही रहने देता है क्योंकि इसका निर्धारण मतलबों आरक्षण तथा धार्मिक धोखाधड़ी के लिये किया जाता है। 
क्या इस देश में अब “अल्पसंख्यक” शब्दावली को बदलने की जरूरत है?

Friday 8 May 2015

भारत में 200 वर्ष पहले आँखों की सर्जरी होती थी| Eye Surgery in India Two Centuries Ago.

भारत के दक्षिण में स्थित है तंजावूर. छत्रपति शिवाजी महाराज ने यहाँ सन 1675 में मराठा साम्राज्य की स्थापना की थी तथा उनके भाई वेंकोजी को इसकी कमान सौंपी थी. तंजावूर में मराठा शासन लगभग अठारहवीं शताब्दी के अंत तक रहा. इसी दौरान एक विद्वान राजा हुए जिनका नाम था "राजा सरफोजी". इन्होंने भी इस कालखंड के एक टुकड़े 1798 से 1832 तक यहाँ शासन किया. राजा सरफोजी को "नयन रोग" विशेषज्ञ माना जाता था.  चेन्नई के प्रसिद्ध नेत्र चिकित्सालय "शंकरा नेत्रालय" के नयन विशेषज्ञ चिकित्सकों एवं प्रयोगशाला सहायकों की एक टीम ने डॉक्टर आर नागस्वामी (जो तमिलनाडु सरकार के आर्कियोलॉजी विभाग के अध्यक्ष तथा कांचीपुरम विवि के सेवानिवृत्त कुलपति थे) के साथ मिलकर राजा सरफोजी के वंशज श्री बाबा भोंसले से मिले. भोंसले साहब के पास राजा सरफोजी द्वारा उस जमाने में चिकित्सा किए गए रोगियों के पर्चे मिले जो हाथ से मोड़ी और प्राकृत भाषा में लिखे हुए थे. इन हस्तलिखित पर्चों को इन्डियन जर्नल ऑफ औप्थैल्मिक में प्रकाशित किया गया|


प्राप्त रिकॉर्ड के अनुसार राजा सरफोजी "धनवंतरी महल" के नाम से आँखों का अस्पताल चलाते थे जहाँ उनके सहायक एक अंग्रेज डॉक्टर मैक्बीन थे. शंकर नेत्रालय के निदेशक डॉक्टर ज्योतिर्मय बिस्वास ने बताया कि इस वर्ष दुबई में आयोजित विश्व औपथेल्मोलौजी अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में हमने इसी विषय पर अपना रिसर्च पेपर प्रस्तुत किया और विशेषज्ञों ने माना कि नेत्र चिकित्सा के क्षेत्र में सारा क्रेडिट अक्सर यूरोपीय चिकित्सकों को दे दिया जाता है जबकि भारत में उस काल में की जाने वाले आई-सर्जरी को कोई स्थान ही नहीं है|



डॉक्टर बिस्वास एवं शंकरा नेत्रालय चेन्नई की टीम ने मराठा शासक राजा सरफोजी के कालखंड की हस्तलिखित प्रतिलिपियों में पाँच वर्ष से साठ वर्ष के 44 मरीजों का स्पष्ट रिकॉर्ड प्राप्त किया. प्राप्त अंतिम रिकॉर्ड के अनुसार राजा सर्फोजी ने 9 सितम्बर 1827 को एक ऑपरेशन किया था, जिसमें किसी "विशिष्ट नीले रंग की गोली" का ज़िक्र है. इस विशिष्ट गोली का ज़िक्र इससे पहले भी कई बार आया हुआ है, परन्तु इस दवाई की संरचना एवं इसमें प्रयुक्त रसायनों के बारे में कोई नहीं जानता. राजा सरफोजी द्वारा आँखों के ऑपरेशन के बाद इस नीली गोली के चार डोज़ दिए जाने के सबूत भी मिलते हैं|

प्राप्त दस्तावेजों के अनुसार ऑपरेशन में बेलाडोना पट्टी, मछली का तेल, चौक पावडर तथा पिपरमेंट के उपयोग का उल्लेख मिलता है. साथ ही जो मरीज उन दिनों ऑपरेशन के लिए राजी हो जाते थे, उन्हें ठीक होने के बाद प्रोत्साहन राशि एवं ईनाम के रूप में "पूरे दो रूपए" दिए जाते थे, जो उन दिनों भारी भरकम राशि मानी जाती थी|