रोहित वेमुला की आत्महत्या के मामले को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है। इसलिए और भी, क्योंकि इस छात्र ने अपनी आत्महत्या के पूर्व जो पत्र लिखा उसमें अपने निलंबन का कहीं कोई जिक्र नहीं है। दार्शनिक भाव से लिखा गया यह पत्र तो यही प्रकट करता है कि वह विरक्ति का भी शिकार था और उसे अपने जीने का कोई उद्देश्य नहीं नजर आ रहा था। चूंकि उसके इस पत्र के आधार पर किसी नतीजे पर पहुंचना मुश्किल है इसलिए इसकी गहन जांच होनी ही चाहिए कि उसने किन परिस्थितियों में आत्महत्या की और क्या इन परिस्थितियों के लिए विश्वविद्यालय प्रशासन उत्तरदायी है? इस जांच के साथ ही यह भी देखा जाना चाहिए कि क्या कारण है कि उच्च शिक्षा के केंद्रों में दलित एवं पिछड़े वर्ग के छात्रों को अन्य छात्रों के मुकाबले कई तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है? इन परेशानियों के चलते इन वर्गों के छात्र या तो पढ़ाई छोडऩे पर विवश होते हैं या फिर आत्महत्या जैसा कदम उठाते हैं। पिछले कुछ वर्षों में हैदराबाद विश्वविद्यालय में ही दलित-पिछड़े वर्ग के कम से कम आठ छात्र आत्महत्या कर चुके हैं। स्पष्ट है कि उच्च शिक्षा केंद्रों के सामाजिक माहौल को सुधारने की जरूरत है। इस जरूरत को पूरा करने के साथ ही यह भी देखा जाना चाहिए कि आखिर विश्वविद्यालयों को राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र क्यों बनने दिया जाए? ऐसे ही मुद्दों को आधार बनाकर ओवैसी जैसे लोगों को अपने अजेंडे को साधने का मौका मिलता है जो दलित-मुस्लिम के गठजोड़ को आधार बनाकर एक और विभाजन का स्वप्न देख रहे हैं।
रोहित की आत्म-"हत्या" से एक बार फिर मुल्ला-मार्क्स-मिशनरी गिरोह को हिन्दू धर्म को गरियाने और मोदी को कटघरे में खड़ा करने का मौका मिल गया है। इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना के बाद लोगों की असंवेदनहीनता और स्वार्थपरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि दोनों पक्ष जाति के नाम पर अपनी-अपनी कुंठाएं निकालने में मशगूल हैं। एक पक्ष जहाँ हजार साल से चले आ रहे सामाजिक आरक्षण को नजरअंदाज करते हुए जिसकी वजह से न जाने कितनी प्रतिभाओं की भ्रूण हत्या हुयी, 68 साल पहले दिए गए संवैधानिक आरक्षण का रोना रोटा है वहीँ दूसरा पक्ष स्वयं पर किया गए और किये जा रहे अत्याचारों का हवाला देकर धर्म विरोधी ताकतों के हांथों को कटपुतली बना हुआ है।
हिन्दू धर्म को उद्दात्त विचारों वाला उदार धर्म कहा जाता है तो विशाल ह्रदय दिखाते हुए इसे व्यवहारिक रूप में भी प्रमाणित करने आवश्यकता है, न कि छुद्र और दकियाकनूशी सोंच का परिचय देते हुए हर समाजसुधारक को अंग्रेजों का एजेंट घोषित करके स्वयं को देशभक्त प्रमाणित करने की इतिश्री कर ली जाये। आखिर ये कौन सी विशाल हृदयता और उदारता थी जिसने रक्त दूषित होने का हवाला देकर कश्मीर के राजा गुलाब सिंह के "घरवापसी" यज्ञ को असफल बनाया, स्वामी विवेकानंद द्वारा द्वारा समाज में भेदभाव ख़त्म करने के आग्रह पर उन्हें शूद्र कहकर उनका अपना अपमान करना, राजा राममोहन राय के समाजसुधार कार्यक्रमों पर उन्हें अंग्रेजों का एजेंट घोषित किया करना, वीर सावरकर द्वारा दलितों के मंदिरों प्रवेश के आंदोलन पर पुरोहितों द्वारा उनका विरोध करना, श्री नरेंद्र मोदी द्वारा दलितों को ट्रेनिंग देकर उनके मंदिर में पुजारी नियुक्त करने के निर्णय का विरोध; ऐसे सैकड़ों-हजारों उदाहरण इतिहास और वर्त्तमान में विद्यमान हैं? समाज के प्रबुध्द वर्ग को इस पर मंथन करने की आवश्यकता है आखिर क्या कारण हैं कि जिस अम्बेडकर ने इस्लामिक जिहाद के प्रति दलितों को आगाह किया था और विभाजन के समय हिन्दू-मुस्लिम जनसंख्या की पूर्ण अदला-बदली की मांग की थी, आज उनके कथित अम्बेडकरवादी अनुयायी दलित जो मूल रूप से क्षत्रिय लड़ाकू जातियां थीं, अब मुल्ला-मार्क्स-मिशनरी गिरोह के हाँथों की कठपुतली बन चुके हैं और उनके सिद्धांतों को तार-तार करते हुए भारत विरोधी शक्तियों के हांथों में खेल रहे हैं।
जातिगत राजनीति और मुल्ला तुष्टिकरण का खेल इतना घिनौना हो चुका है कि तथाकथित दलित रहनुमाओं को शांतिप्रिय समुदाय द्वारा पुणे में जलाये गए 17 वर्षीय दलित युवक, हरियाणा में समुदाय विशेष द्वारा दलित लड़की का रेप और मुजफ़्फ़रनगर में दलित नर्स का रेप नहीं दिखता। दलित उद्धार के तराने गाने वाले इन ढोंगी रहनुमाओं को 1947 के बाद जम्मू कश्मीर में मैला धोने के लिए स्थाई नागरिकता के झूठे आश्वासन पर पाकिस्तान से वापस बुलाकर लाये गए बाल्मीकियों की पीड़ा भी नहीं दिखाई देती। छद्म हिंदूवादियों और अम्बेडकरवादियों के इस टकराव में विजय किसी नहीं होगी परंतु कई सदियों से चले आ रहे भारत के दुर्भाग्यपूर्ण इतिहास की तरह पराजय भारत की होगी।
डा. अम्बेडकर ने विभाजन के समय कहा था- "अनुसूचित जाति के लोग , जो पाकिस्तान और हैदराबाद में फंसे हुए हैं, उनसे विनती की कि वे किसी भी उपाय से भारतीय संघ में चले आएं। अनुसूचित जाति के लोगों के लिए, चाहे वो पाकिस्तान में हो या हैदराबाद में, मुसलमानो या मुस्लिम लीग पर भरोसा करना जानलेवा साबित होगा। अनुसूचित जाति के लोगों की आदत पड़ गयी है कि वे मुसलमानो को मित्रता की नज़र से महज़ इस लिए देखते हैं , क्योकि वे हिन्दुओ से घृणा करते हैं, यह धारणा गलत है। पाकिस्तान में उन्हें जबरन मुसलमान बनाया जा रहा है।" गौरतलब है आज पाकिस्तान और बांग्लादेश में इस्लाम के जबड़े में फंसे हुए अधिकतर हिन्दू दलित ही हैं।
आज के तथाकथित दलित नेताओं और पिछड़े वर्ग की राजनीतिक रोटी सेंकने वालों के मुंह तब सिले रहते हैं संवैधानिक नियमों को ताक पर रखकर जामिया और एएमयू जैसे संस्थानों में SC, ST,OBC के खाते की सीटें अल्पसंख़्यकों को दे दी जाती हैं और 85% मुस्लिम जातियां OBC में शामिल होकर उनके हिस्से का अतिक्रमण कर रही हैं। ये ठेकेदार तब भी शांत थे जब कांग्रेस नें 1993 में बौद्धों (जिन्हे अम्बेडकर ने आरक्षण के दायरे से बाहर रखा था) को भी SC आरक्षण के दायरे में शामिल किया था और 2005 में कांग्रेस ने 93वें संविधान संसोधन द्वारा अल्पसंख्यक संस्थानों को SC, ST,OBC आरक्षण के दायरे से मुक्त रखा था, क्या तब दलितों के अधिकारों का हनन नहीं हो रहा था?
क्या हम भविष्य में आने वाले वृहद खतरे को नजरअंदाज करते हुए केवल दूसरों पर दोषारोपण करके स्वयं की जिम्मेदारियों और गलतियों से बच सकते हैं? क्यूकि समस्याओं को केवल ब्लैक एण्ड व्हाइट के नजरिये से देखने में समाधान नहीं है बल्कि उनका तठस्थ भाव से अवलोकन करने की आवश्यकता है।
डा. अम्बेडकर ने विभाजन के समय कहा था- "अनुसूचित जाति के लोग , जो पाकिस्तान और हैदराबाद में फंसे हुए हैं, उनसे विनती की कि वे किसी भी उपाय से भारतीय संघ में चले आएं। अनुसूचित जाति के लोगों के लिए, चाहे वो पाकिस्तान में हो या हैदराबाद में, मुसलमानो या मुस्लिम लीग पर भरोसा करना जानलेवा साबित होगा। अनुसूचित जाति के लोगों की आदत पड़ गयी है कि वे मुसलमानो को मित्रता की नज़र से महज़ इस लिए देखते हैं , क्योकि वे हिन्दुओ से घृणा करते हैं, यह धारणा गलत है। पाकिस्तान में उन्हें जबरन मुसलमान बनाया जा रहा है।" गौरतलब है आज पाकिस्तान और बांग्लादेश में इस्लाम के जबड़े में फंसे हुए अधिकतर हिन्दू दलित ही हैं।
आज के तथाकथित दलित नेताओं और पिछड़े वर्ग की राजनीतिक रोटी सेंकने वालों के मुंह तब सिले रहते हैं संवैधानिक नियमों को ताक पर रखकर जामिया और एएमयू जैसे संस्थानों में SC, ST,OBC के खाते की सीटें अल्पसंख़्यकों को दे दी जाती हैं और 85% मुस्लिम जातियां OBC में शामिल होकर उनके हिस्से का अतिक्रमण कर रही हैं। ये ठेकेदार तब भी शांत थे जब कांग्रेस नें 1993 में बौद्धों (जिन्हे अम्बेडकर ने आरक्षण के दायरे से बाहर रखा था) को भी SC आरक्षण के दायरे में शामिल किया था और 2005 में कांग्रेस ने 93वें संविधान संसोधन द्वारा अल्पसंख्यक संस्थानों को SC, ST,OBC आरक्षण के दायरे से मुक्त रखा था, क्या तब दलितों के अधिकारों का हनन नहीं हो रहा था?
क्या हम भविष्य में आने वाले वृहद खतरे को नजरअंदाज करते हुए केवल दूसरों पर दोषारोपण करके स्वयं की जिम्मेदारियों और गलतियों से बच सकते हैं? क्यूकि समस्याओं को केवल ब्लैक एण्ड व्हाइट के नजरिये से देखने में समाधान नहीं है बल्कि उनका तठस्थ भाव से अवलोकन करने की आवश्यकता है।